मेरी आँखे इस तेज़ पुंज को देख कर चकाचौंध हो गई….. वो तेज़ पुंज अब श्वेत की जगह रंगीन सा होने लगा था…….. तथा एक सुगन्धित खुशबू से कमरा भर गया था…… सुगन्ध ऐसी कि कभी नहीं महसूस की होगी जो आज पहली बार थी…… ओफ…. कुछ समझने कि कोशिश कर रही थी कि एक आकृति सी दिखने लगी……. एक चेहरा जो ब्रह्माण्ड मे एक ही होगा ……. अदभुत……… सुंदरता न कभी देखी न सुनी…… होठों पे मधुर मुस्कान थी……..”अद्धरों में लालिमा”……दूध जैसे चमकते दंत पंक्तियाँ..;… लगा बादलों से चमकता – दमकता शीतल चाँद निकल आया हो ……. आहा वो आभा मुख जिसे देख चंद्र भी शरमा जाये…… लगातार “मुस्करा कर मेरी और निहारती वो बड़ी बड़ी चमकदार आंखे”……. झील से भी ज्यादा गहरी थी……. मुस्कान के साथ जब उसने पलकें झपकीं तो मानों तीनो लोको में अंधियारा छा गया हो…. तथा पलकें उठते ही रोशनी से भर गया संसार…… ऊंचा चौड़ा ललाट उस पर चन्दन तिलक सुशोभित काली घनी घुंघर वाली लटें….. सिर पर बंधा पटका मोर पंख से विराज रहा था…… हाथ मे बंसी…….ये दो नैना मुझे निहार रहे थे…. मैं तो वेसुध सी बिना पलकें झपके एक टक उस सुंदरता को निहारने मे ही खो गई थी…. .अब धीरे-धीरे रूप निहारा तो होश आया…..अरे…. मेरा कान्हा…. मैंने मन मे सोचा ही था…… कि वह मेरे पास आ बैठे….. वही दिल चुरा लेने वाली मुस्कान…… पुष्पा पहचान नहीं रही….. अरे मैं तेरा कान्हा…. रोज़ तू मिश्री – तुलसी खिलाती है….. मेरे सामने बैठे बातें करती है – कभी हँसती है कभी रोती है….. और हाँ कभी तो लड़ती भी है… डांटती भी है मुझे प्रेम करती है…. ये क्या हुआ देख तेरा कान्हा आया है….. उसने अपने कोमल हाथो से मेरे माथे से बालों तक हाथ फेरा… पर उसकी नज़रें मेरे पर ही थी… हाथ के स्पर्श से जैसे मुझे नयी ताज़गी आ गई थी… अब मैंने भी मुस्कान का जवाब मुस्कान से दिया

मुझे लगा मे उठूं…. सोचा ही था कि कान्हा ने झट अपनी बाहें फैला कर मुझे उठा दिया…. उठते ही मैं अपने प्रभु के सीने से लिपट गई… इतना रोयी…. कि गंगा – यमुना के समान धारा सी बहने लगे…. क्यों रोती है…. तू रोती बहुत है….. तुझे पता है…..तू रोती है… तो मैं भी रोता हूँ……. मेरे भक्त दुखी होते हैं तो मैं उन से ज्यादा दुखी होता हूँ…अपने सदा बहार पीताम्बर से मेरे आँसू पोंछे…. और जोर से सीने में चिपका लिया…… तू रोज़ यही सोचती है न कि मैं तेरे साथ रहूं बातें करूँ…..दुःख – सुख बाँटू प्यार करुँ…. अब रोती रहेगी…… देख मैं तेरे पास हूँ…. कर जो चाहती है…..मैं उस मन-मोहिनी सूरत को निहारती जा रही थी…… मुझे कहाँ होश था…..मेरे कृष्ण ने मुझे हिलाया….. ऐ चल अपने कान्हा को मिश्री – तुलसी नहीं देगी…… आज खिला ना….. खुद कृष्ण मांग रहा है मुझसे …..” तथा अद्धरों पे मुस्कान….. मैंने खुद को संभाला – पर लाला को छोड़ने को मन ही नहीं हुआ नज़रे हटीं ही नहीं मुख मंडल से….. अभी सोचा ही था कि लगा एक कटोरी मे मिश्री, माखन , तुलसी वहीं पर रखी है…. ये क्या चमत्कार है … अब मैंने कटोरी उठाई तथा बिना समय गंवाये अपने कान्हा को प्रसाद खिलाना शुरू किया…. तीनो लोकों में सबसे भाग्यशाली मैं उस नारायण को उस कृष्ण को अपने हाथों से प्रसाद खिला रही थी…. आज तो शायद किस्मत भी मुझे देखकर जल रही होगी। अब मैं ठीक महसूस करने लगी थी….”मैं खिला रही थी”- तथा तीनों लोकों का स्वामी मंद-मंद मुस्कान बिखेरता मेरे हाथों से खा रहा था – लगातार मेरी तरफ देख कर…. पानी की तरफ आँखों से ईशारा किया…..”मैंने कुछ सोचा तो देखा चाँदी के गिलास मे पानी रखा है… कान्हा ने मुस्करा कर ऐसे देखा और बोले ये रखा है तू तो बार त्यौहार में ही पिलाती है…….. इस गिलास में पानी…….. और हंस पड़े…. मैं भी हंस पड़ी…….. आज मै सामने हूँ न इसलिए निकाल लाया…… तू जो सोचती है ना वो मुझे पता है-तू बस सोच “मैं करता हूँ न”…… मुझे सब पता है लास्ट में बचा-कुचा लेकर मेरे मुँह मे डाल दिया…… “कृष्ण ये सुगन्ध कैसे” अरी पगली भक्तों के फूलों की माला की है न जो मुझे प्रेम से भेंट करते हैं….. मैं लेता हूँ… मैंने मन मे कहा ओह….

मैंने अपने दुपटे के कोने से कान्हा का मुँह पोंछा…….वे प्यार भरी नज़रों से मुझे देखते रहे…..कान्हा तू मेरा कृष्ण ही है न …. मैंने मासूमियत से पूछा… अद्धरों पर मुस्कान और बढ़ गई…. उन मन-मोहिनी जादुई नज़रों से मेरी ओर प्यार से निहार कर बोले….. हाँ…हाँ मैं तेरा कृष्ण ही हूँ… और सीने से लगा लिया…… मैं आँखे मूंदे लिपटी रही…..फिर सोचा जी भर के देख लूँ अपने कान्हा को….ये छलिया भी है….कहीं चला गया तो… मैंने फिर उठकर वो चेहरा निहारा, वो रूप, वो झलक जिसे पाने के लिए जन्मों लग गये हैं सन्यसी तथा ऋषियों को….चल मेरे साथ बहार मैंने एक बार निहारा और झट उठ बैठी…… मेरा कृष्ण कितना लाड लड़ा रहा था….. मानो मेरी सोची हर बात जनता हो तथा पूरी करना चाहता हो….. मेरा हाथ थामे बाहर लाया……… बहार एक फूलो से महकती फूलों की डोली थी….. कान्हा उसमें चढ़ गया था तुरंत मुझे अंदर लेने के लिए हाथ दिया…. अब हम अंदर थे तथा वो हवा में उड़ने लगी…. कान्हा ने मेरी तरफ देखकर पूछा – आज कल तू मेरी गाय माता का प्रचार कर रही है…..”मैंने थोड़ा हैरान सी हो कर कान्हा की और निहारा…. हूँ….. चौंक क्या रही हो….हर जगह मैं ही तो हूँ…. हर चीज़ में, इंसान में, प्रकृति में, सब में मैं ही तो हूँ ….तेरे फेसबुक में भी…. अब मैं भी हंस पड़ी…. हां… हां जानती हूँ…….. फिर कान्हा झट बोला…. पूजा करते समय रोज़ जो तू ताने देती है मुझे कि कान्हा आजा मिलने… देख मैं तेरी गईया मैया का और तेरा प्रचार करती हूँ… सारा दिन लोगों को “जय गौ माता” और “जय श्री कृष्ण” लिखती हूँ…….. मुझे सब याद है…. और आज तो तूने हद कर दी – सुबह की पूजा में कितना रोयी तू…. कितना तडप रही थी तू मेरे लिए इसी लिए तो आ गया मैं….. ईश्वर के चेहरे की मधुर मुस्कान गायब सी हो गयी – वो खूबसूरत सी मदमस्त आँखों में जल भर आया… मुझे लगा पूरा ब्रह्माण्ड उदास हो गया, नीरस हो गया…. अगर ये आंसू की बूंद नीचे गीरी तो जलप्रलय हो जायेगा… पूरा संसार जल समाधि में चला जायेगा… मैंने झट-पट अपने पल्लू से उन अमृत बूंदो को समेट लिया… तथा फिर वो ही मधुर मुस्कान…. तू मुझमे मिल गई है…. तू मैं हूँ… हम एक हैं……. तू मुझे समझ गई…. मैं तेरी ऊंगली थामे उधर ही रहा जहाँ तुझे मेरे तक आने का रास्ता मिले… तू सरल है….. मन की सच्ची है भोली है…. मैं उन्हें ही मिलता हूँ…. देखता हूँ…. सुनता हूँ…. जो हर चीज़ में मुझे महसूस करें…. मैं प्रकृति हूँ…. मैं मन हूँ…. सांसें हूँ…. प्यार हूँ…. सच्चाई हूँ… भोलापन हूँ…. सरल हूँ…. दयालु हूँ…. निष्कपट हूँ…. छल नहीं जनता….. दूसरों का दर्द समझता हूँ…. मैं आत्मविश्वास हूँ…. मैं शुद्ध आत्मा हूँ…. अगर इसका कुछ अंश भी इंसान में हो तो मैं उसकी आत्मा हूँ….

मैं तो बावरी सी एकटक अपने आराध्य को निहार रही थी….. जो मेरे साथ था….. मुझसे बातें कर रहा था…. मुझे प्रेम से निहार रहा था…. उसका फूलों से भी ज़्यादा नाज़ुक हाथ मेरे माथे से बालों तक सहला रहे थे तथा मेरा सौभाग्य बदल रहे थे….. अपने आप पर मेरा भाग्य इतरा रहा था…. आज नारायण खुद मेरे साथ थे मेरी सोची हुई बातों को पूरा कर रहे थे…. उन्हें मेरी हर बात पता थी….. जब मैं उन्हें याद करती….. व लड़ती, गुस्सा करती, प्रेम करती, वह सब उन्हें पता था….. ईश्वर सुनता है…. बस बात सरल हो…. भोलेपन से हो…. उसमे मिलावट न हो….. कभी लगता है…. हम ठीक हैं…. पर नहीं होते….. हम समझ नहीं पते अंदर कुछ और चलता रहता है…. लाखों वर्षों तक उस कृष्ण की प्राप्ति नहीं होती…. ये शरीर उसी का है…. उसी पर छोड़ दो…. लेकर के क्या करना है इसका और क्या करवाना है इससे….. जो तू चाहे कर…. कहते हैं न “तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा”…. उसको सौंप कर निश्चिन्त हो जाओ…..

दोस्तों छोटी सी बात समझ आ जाये तो वो मिल जाता है वार्ना ढूंढते रहो….. विदुर के घर में विदुरजी के प्रेम भाव से खिलाये केले के छिलके खाते रहे….. प्रभु भाव के भूके हैं… प्रेम के प्यासे हैं…. चतुराई के नहीं….
दोस्तों यह मेरी सोच है…. आप क्या सोचते हैं आप जानो…. गौपालक कृष्ण के लिए मेरी सोच कैसी लगी……. बताईये……..
आगे दूसरे भाग में पढिये- “कृष्ण संग…..”
” डिप्टी सेक्रेटरी – प्यारे फाउंडेशन“
लेखिका – पुष्पा थपलियाल” एक सुंदर कल्पना “
फोन न. – 8587890152; 8377075517
ये कहानी पूरी तरह काल्पनिक है
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