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मैला आँचल

इतनी अशांति और बेचैनी मन में कभी नहीं  आई थी… जितनी कि आज थी इसलिए शायद मेरा ये मन उदासी का भारी बोझ लिए भटक रहा था… चलते चलते रास्ते के दूसरी तरफ बानी कोयला चुगने वालों तथा कूड़ा चुगने वालों की झुग्गी झोपड़ियों की तरफ देखती चली जा रही थी… उन्हें देखकर मन दुखी होता तथा मन में उनसे मिलने के लिए एक उमंग उठती…शायद कलाकार का दिल इसीलिए ईष्वर ने इतना नाज़ुक बना दिया की वह दूसरों के दर्द या भावनाओं को समझ सके… शायद वही बात दिल की कमजोरी बनकर मुझे उन अनजान लोगों तक खींचकर ले गयी… मेरे जाते ही वहां पर भीड़ सी जमा हो गयी.. ,मैंने सभी से बड़े प्यार से  बातें की… तभी मेरी दृष्टि सामने चारपाई पर पड़ी… एक मैली कुचैली औरत पर पड़ी… जो एक बच्चे को लिए मेरी तरफ ही निहार रही थी… बच्चे के तन पर नाम के लिए एक फटी कमीज थी… जिसके बटन भी न थे… तभी एक बुढ़िया की आवाज से मैं चौंकी … उसने बड़ी लापरवाई व सख्ती भरे लहजे में कहा.. इसके दोनों पाँव नहीं है… शादी भी नहीं हुई है और बच्चा है… पड़ी रहती है कोई रोटी डाल दे तो भूखे कुत्ते की तरह झपटती है… मैंने अब रुख उस बूढी की तरफ कर लिया था… वह अपनी टूटी फूटी सी हिंदी बोलकर मुझे हाथ के इशारों से बताकर ये सब समझाने की कोशिश कर रही थी.. मैंने उसकी कट्टरता और भाषा पर कोई ध्यान या ऐतराज न किया… मुझे महसूस हुआ कि उसकी ये हालत मेहनत और भुखमरी ने कर दी है… व उसे रूढ़िवादी बना दिया है… कहाँ हमारा देश स्वर्ण जयंती मन रहा है तथा कहाँ ये दृश्य…. (मेरा भारत महान) तथा तरह तरह के नारों से देश गुंजायमान है… ये थी देश की आम जनता की कटु सच्चाई… मैं अपनी भावनाओं को समेटते हुए…. टूटी खटिया से उठी तथा पर्स उठाकर उस तरफ बढ़ी… बच्चे सभी मेरे पीछे ही आ गए थे… मैं जाकर उस औरत की खटिया में पैरों की तरफ से जा बैठी…  वह सकुचाई… फटे तथा गंदे कपड़ों को उसने अपनी फटी कुचैली चादर से ढकने का असफल प्रयास किया… कुछ क्षण चुप रहकर मैंने उसकी भावनाओं को जान्ने की कोशिश की… और तब सांस बटोरकर पूछ लिया… ये हाल कैसे हुआ… उसका मासूम चेहरा सेहम गया जब मैंने उसे ध्यान से देखा तो… मैल की परत बदन पर चढ़ी हुई थी… बाल गन्दगी से ऐसे चिपके हुए थे जैसे बोरी का टाट हो… महीनों से उनपर कंघी ही नहीं फेरा था… कपड़ों से बास मार रही थी… उसे देखकर मन कांप गया था… मैंने दुबारा कहा… क्या नाम है तुम्हारा तथा पाँव कैसे कटे? पलकें झुकाकर बोली… मेरा नाम गंगा है… स्वर धीमा तथा रूककर था… तथा इतना कहकर ही अश्रु धरा बह निकली.. ठीक गंगा के निर्मल जल की तरह ही… जिसमे पूरे भारत की गन्दगी बहाई जा रही है तब भी उसका पवित्र जल लोगों के पाप धोता है… व ज्यों का त्यों कीटाणु रहित है… क्योंकि पाप भी पवित्रता में मिलकर पवित्र हो जाता है… इस गरीब के निर्दोष पवित्र आंसू सारे जहां को न बहा दें… मैंने रुमाल देकर आंसू पोंछने को कहा.. उसने आंसू अपने पल्लू से पोंछे व रुमाल न लिया… मैं समझ गयी कि साफ़ रुमाल कहीं गन्दा न हो जाये.. उसने तभी ऐसा किया….मैंने अपने हाथ को बढ़ाकर उसके आंसू पोंछ दिए… विवशता से बहते मोतिरूपी इन आंसुओं के सामने कि सफ़ेद कतरन का क्या मोल था… 

>मेरी सहानुभूति पाकर शायद इतने दिनों का रुका वो घाव फूट पड़ा और शायद सहानुभूति पाकर दर्द कुछ काम हुआ… कुछ क्षण मैंने उसे रोने दिया… फिर इत्मीनान से बैठी तथा पुचकार कर उसे रुमाल थमाया व उसकी बात जान्ने की कोशिश की… अब उसने बैठते हुए कहा हम क्या सुनाएं (मेमसाहब)… उस समय अपने इस दुर्भाग्य का पता ही न था… 

उसने गहरी सांस छोड़ते हुए दुबारा अपनी बात बतानी शुरू की… एक दिन मैंने उससे कहा बाबूजी मैं तुम्हारे बच्चे की माँ बनने वाली हूँ तो मुझे लगा जैसे उसकी सांस रुक गयी थी… फिर उसने खुदको संभालकर कहा चल गन्दी चुड़ैल जाने किस किसके पास घूमती फिरती है… नहीं (बाउजी) तेरी जान की सौं… काम के अलावा आप ही के पास आती हूँ… अच्छा चल अब ज़रा दूर हटकर बैठ… और सुन कुछ रूपए ले और इलाज करवा जाकर… और सुन मेरी बहुत इज्जत है.. आज तो कह दिया तूने अब न सुन लूं ये बात… उसकी बात सुनकर मैं काँप गयी… उसने बड़बड़ाकर अँधेरे में कुछ रूपए मेरे हाथ में थमाए और फिर फुंकारकर बोला…. तू मेरा ज़रूर हरा भरा घर बर्बाद करेगी… नहीं (बाउजी) मैंने रोते हुए कहा तथा उससे लिपटने की कोशिश की… उसने एक झटके से मुझे हटाया… गन्दी चुड़ैल बास आती है तथा डिब्बे से छलांग लगायी व अँधेरे में लुप्त हो गया… उसके जाने के बाद मैं खूब रोई… झल्लाई कि जब मैं गन्दी चुड़ैल हूँ तो क्यों मिलने आता है… परन्तु बाद में रात तक रोज आती परन्तु वह न आया… 

एक दिन, दोपहर के समय कोयला चुन रही थी कि दो पुलिस वाले पास से गुज़रे… तो जानी पहचानी आवाज़ लगी.. अरे वही कद काठी – ये तो मेरा बाबू है… कितना सुन्दर है… फिर सोचा कहीं वह न हो… कभी रौशनी में देखा ही नहीं था… फिर भी मैं पीछे-पीछे चल दी थैला लेकर… वह शायद घर की तरफ जा रहे थे.. तभी उसने मुड़कर पीछे देखा तथा फिर चलते चलते दो तीन बार पलटके देखा… शायद उसे  भी पहचान आ रही हों… कुछ दूरी बाद दोनों अलग रास्ते जाने के लिए मुड़ने से पहले रुके… उसकी नज़र मुझपर ही थी… अपने साथी के जाने के बाद भी वह रुका रहा… मैंने पास जाकर कोयले की धुल में काले हुए कपडे और पादन को मैले आँचल से ढकते हुए कहा… बाबू कोयला पहुंचा दूँ घर में… दो रूपए थैली है… नेरी आवाज़ सुनकर शायद वह पहचान गया… फिर उसे ध्यान आया वो गन्दा मैला बदन व बदबूदार कपडे जब कभी बालों पर हाथ फेरता तो लगता बोरी पर हाथ फेर रहा हूँ… महीनों तक धुलाई तथा कंघी नहीं फेरती थी… फिर वह अपने ख्यालों से शायद वापिस आया तथा सामने मुझे एक पल ध्यान से देखकर काँप सा गया… तथा बोला गन्दी चुड़ैल और तुरंत छोड़कर चल दिया… उसका दोस्त भी अभी पास ही खड़ा था फिर मैंने उसके जाते हुए दोस्त से कहा… बाबूजी कोयला लेना है? उसने घृणित निगाहों से मुझे देखते हुए झिडकते हुए कहा.. … नहीं व चला गया… फिर मैं जल्दी से कुछ कदम अपने बाबू के पीछे लपकी… बाबूजी… परन्तु वह तो तेजी से निकल गया… फिर समय बीता… 

मेरा ये लड़का हुआ… सबने मुझे दुत्कार दिया तथा एक दिन फिर मुझे मेरे बाबूजी दिखे… मैं उनकी तरफ दौड़ी… देखने की चाह हुई तथा सोचा चुपके से बता दूँ की हमारा बेटा हुआ है… क्या पता उसे ही रखलें… यह सोच ही रही थी तो ज्यों ही मैं लाइन क्रॉस कर रही थी मैंने देखा ही नहीं बाबू के  चक्कर में की गाडी आ रही है… और बस मेरे दोनों पाँव कट गए… और उसने देखकर भी कुछ न कहा… बस मेमसाहब ऐसा मन टूटा कि लगा शैतान की संगत की थी शायद इसीलिए ये सजा मिली और अपनी कहानी सुनाकर वह फूटफूटकर रोने लगी… मरे भी आंसू न रुके … बस मन में कैसे कैसे ख्याल आ रहे थे… मैंने पर्स खोलकर कुछ रूपए निकालकर उसे दिए तथा कहा ज़रूरत पड़े तो कहना तथा इतना कहते हुए मैं उठकर कड़ी हुई… तथा एक नज़र से दुबारा सभी को निहारा.. उदास मन लिए मैं फिर आने का वादा लेकर लौट आयी थी….

” डिप्टी सेक्रेटरी – प्यारे फाउंडेशन“

लेखिका – पुष्पा थपलियाल

फोन न. – 
8587890152 ; 8377075517

ये कहानी पूरी तरह काल्पनिक है

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