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मैं कृष्ण संग – संग भाग २ (2)

जब से गौलोक धाम गयी……… मैं अपने आप में नहीं थी…….. एक ऐसी शांति न कोई चिंता न कोई चीज़ की चाहत ……… जब से कान्हा संग गौलोक धाम आयी हूँ……. कान्हा की मेहमान बन कर घूम रही हूँ……… वे एक संगमरमर के पथर पर बंसी लिये बैठे हैं…….. और मै गोद में सर रखके हरी घास में बैठी हूँ……. चारों तरफ मानो प्रकृति ने अपने हाथों से मखमली चादर बिछा कर वातावरण को ढक दिया हो…….

हर किस्म के फलों  की डालियाँ तथा फूलों की डालियों से चमन को महका रही थी…… अहा….. क्या सुगंध थी…… हर डाली अपने आप को  सौभाग्यशाली मेहसूस कर रही थी थी और क्यों न इतराती अपने भाग्य पर गौलोक धाम की सेवा में सुंदरता बढ़ाने में काम आ रही थी……. और मैं तो मदहोश अपने श्याम के संग बैठी थी……. मैं कान्हा को छोड़ ही नहीं  रही थी……. कुछ समय बाद सर गोद में उठाकर बोली… कान्हा… पर वो तो ध्यान में चले गए थे…… मैंने कान्हा तरफ देखा…… मेरे पास शब्द नहीं हैं उस मनोहारी सूरत का वर्णन करने को वो सांवरी सूरत तथा आँखें बंद थीं………  बड़ी बड़ी उन चंचल चितचोर नयनों को…….. उन लम्बी घनघोर पलकों ने ऐसे ढक रखा था मानो सीप में मोती छुपे हों…… अहा……. चंचल चितवन नयनों को तभी तक निहार सकते हैं……. जब तक वो बंद हैं…….. चाँद की तरह शीतल नयनों का सामना करने के लिए भी शक्ति चाहिए……… ऊँचे माथे पर पड़ी वो लटें, पगड़ी पर सजा मोर मुकुट गुलाबी गालों पर एक लट आकर बार बार गालों को छू लेती थी मानो भगवान चूम चूम कर इतरा रहीं हों…….. क्यों न इतराती उसका भाग्य देखो कृष्ण  ने उन्हें अपने सर पर बिठा रखा था……… ओह…….. कमल पंखड़ियों से भी ज़्यादा सुन्दर व् नाज़ुक होंठों पर बंसी लगने को तरस रही थी……… कृष्ण प्रेम के लिए हर चीज़ तरस रही थी… और मेरा सौभाग्य देखो उस परमात्मा की सखी बनी बैठी पूरा अधिकार जमा रही थी……. उस परमात्मा को बिना पलकें झपकें निहार रही थी….. लाखों करोड़ों वर्षों की तपस्या के बाद भी परमात्मा की इस छवि के दर्शन नहीं होते……. वाह मेरी तकदीर है…… मुझे क्या डर जिसका डर होता है वो मेरा सखा…… पर एक बात थी जबतक उसकी नज़र मुझे नहीं देख रही थी तब तक मैं उसे निहारती…….. ज्यों ही कृष्ण मेरी ओर निहारते तो मैं नज़रें न मिला पाती थी…..

दुनिया में उसकी नज़रों की जादूगरी सबने देखी सुनी है….. वो भी तस्वीर में….. अरे सामने देखलो तो होश ही नहीं आएगा……  साथियों वो तो मैं थी जो साथ हूँ उसके…..

मैं उसकी लाड़ली…… मैंने फिर उस रूप को निहारा…..  जिसे निहारकर जी नहीं भरता था….. पर उठना तो था ही…… हम तो गौ माता को चराने आये थे…… गाय थोड़ा दूर चलीं गयीं थी….. और मैं गौलोक धाम के रास्ते जानती नहीं थी…… मैंने कान्हा की छवि निहारकर फिर कहा कृष्णा….. देखो गइया दूर जा रहीं हैं……. कान्हा ने तुरंत आँखें खोलीं और एक ऐसी मधुर जी चुराने वाली “मुस्कान से मुझे देखा….. और बोले सखी मैं  था….. कृष्ण के बोलते ही मुझे लगा कैसे फूल झड़े हों डालियों से.. शहद से भी मीठी आवाज़… जैसे एक साथ कई घंटियां मंदिरों में बजी हों…… और उसी अदा से मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया…… और हम गायों की तरफ चल दिए……. मुझे खुद पर अफ़सोस होने लगा…… मैं आज तक कहाँ इंसानों के चक्करों में पड़ी रही….. अपने परमात्मा प्रेमी को छोड़कर….. क्या भाग्य है मेरा! मैं  कदम से कदम मिलाती हाथों में हाथ लिए अपने प्रियतम कृष्ण संग चल रही थी….. किसी की नज़र न लगे मेरे भाग्य को मेरा सखा मुझे छोड़ न दे…. और इसी डर से मैं, और कस के कान्हा का हाथ पकड़ लेती….. तःथा अंदर ही अंदर अपने भाग्य पर इतराती इठलाती सी चली जा रही थी…… कान्हा को पास आते देख गाय माँ भी उधर देखने लगी….. कान्हा ने प्रेम भरी निगाहों से मईया को देखा तथा माँ के पास जाकर उनके गले, माथे तथा सींगों पर हाथ फेरा और गले में हाथ डालकर लिपट गए…. गईया माँ ने कान्हा के हाथ चाटे तथा गाल पर भी जीभ से चाट दिया…. मानो कान्हा को लाड में चूम रही हो……

इधर लताएं शाखाएं लहरा – लहरा कर झूम – झूम के मानो कृष्ण प्रेम में नाच – नाच कर उन्हें छूने की कोशिश कर रहीं हों….. और फूलों का तो जवाब नहीं, नाच कूद कर अपनी डाली को हिला – हिला कर नीचे गिरके कृष्ण क़दमों में गिरे जा रही थी…… और कुछ ऊपर बरस रहे थे….. चारों और प्रेम  ही प्रेम एक दूजे के लिए बरस रहा था….. जहाँ कृष्ण वहां प्रेम…. फूलों भरी बेलें तरह तरह से कृष्ण को लुभा रहीं थीं…… हर फूल एक दुसरे के पीछे से ऊपर उठकर अपने प्रभु के दर्शन पा रहे थे….. और मन में सोच रहे थे कि “प्रभु” एक प्यार भरी नज़र हम पर भी डालो…. ये है गौलोक धाम कृष्ण  प्रेम नगर….. मैं तो देख – देख कर हैरान थी….. ऐसा प्रेम और इतनी प्रेम बरसात हो रही थी हर जगह….

कान्हा “माँ” से  प्रेम लाड हो गया हो तो हम भी खड़े हैं….. मुझे जाना भी है (मैंने कान्हा की और देखते हुए कहा)…. फिर मुझे जाना होगा….

कान्हा ने मुस्कुरा कर मुझे निहारा….. और मेरा हाथ गईया के माथे पर फिरवा दिया …. माँ ने प्रेम से मेरी ओर देखा…. और मानो बोली जानती हूँ तुझे…. तू मेरे गोपाल मणि पुत्र की शिष्य है न….. और थोड़ी उदास हुई…. मानो कह रही हो…. मेरा पुत्र मेरे लिए कितने कष्ट उठा रहा है….. जैसे बोली तू भी मेरा प्रचार करती है “फेसबुक पर”…. मैंने झट से हाँ कर दी…. बोल क्या चाहिए…. माँ, मेरे गुरूजी की इच्छा पूरी कर दें…. माँ ने दोनों कान हिलाये… मानो कह दिया कि सब ठीक  हो जायेगा… कान्हा ये देखकर मंद – मंद मुस्कुरा रहे थे…. चलो कहीं भी विचरण करो…. ये गौलोक धाम है….. चलें सखी, कान्हा ने मेरा हाथ पकड़ कर कहा….. कान्हा मुझे देर हो रही है…. तो सखी वृन्दावन व गोवर्धन की यात्रा कब करोगी? मैंने कहा…. कल….

कान्हा नहीं गयी तो लोग कहेंगे कि कहाँ गयी होगी… कान्हा ने सरलता से कहा तो बता देना…. मैं भी हँसे बिना न रह पायी और कहा कान्हा ये बता दिया कि मैं कान्हा संग थी तो वहां कौन यकीं करेगा मुझ पर…. कहेंगे पगली हो गयी बावरी – दीवानी….  कृष्ण प्रेम में…. कुछ भी बकती है तू….. कृष्ण को निहारते हुए मैंने कहा तो हो जाउंगी पागल घोषित…. आपके प्रेम में….

कृष्ण की मुस्कान कुछ पल के लिए गायब हो गई….तो लगा मृतलोक में जोर की अाँधी  आयी और “बिजली कड़कने लगी हो……. हा-हा कारमच गया हो चारों ओर….. क्यों न होता दुनिया का मालिक सोच में पड़ गया – पल भर के लिए” मैंने कृष्ण का हाथ लिया और धीरे से चूम लिया”प्रभु क्षमा” ये कल युग है….”भूल गये… आपके भक्तों को दुनिया कुछ भी कहे… “आपका प्रेम चाहते है वो…. कान्हा मुस्कुराए”… वो ही मन्द-मस्त मधुर मुस्कान का जादू ….”ठीक कहती हो सखी “कल आता  हूँ लेने… फिर घूमेंगे वृंदावन धाम “गोवरधन” परिक्रमा…. ठीक है….. चलो घरछोड़ दूं…. अगले पल मैं अपने आँगन में थी…. बस मैं अपने कृष्ण को देख रही थी….

बाकि कोई नहीं … कान्हा मन्द मुस्कान बिखेरते हुए चले गये….

मैं कल के इंतज़ार में समय निकालने लगी …. कभी उदास होती …… कभी रोती…… कभी हँसती….. उसी इंतज़ार ये मस्त हो गई …..

आगे तीसरे  भाग में पढिये- “मै कृष्ण संग…..”

लेखिका – पुष्पा थपलियाल “एक सुंदर कल्पना “

फोन न. – 8377075517

ये कहानी पूरी तरह काल्पनिक है

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