वो रात

Vo raat

मैं रात भर सो न सकी…. क्योकि हाल ही में मेरी एक कहानी पर राज्य सरकार ने मुझे पुरस्कार से सम्मानित किया था और उसी सिलसिले में सुबह टेलीविज़न पर पर देने के लिए कुछ लोग मेरा साक्षात्कार लेने आ रहे थे… अख़बारों तथा कुछ ख़ास पत्रिकाओं में भी काफी प्रशंसा पढ़ने को मिली ….सुबह कैसे तैयारी करनी है उसी विषय में चिंता लगी थी।

>सर्दी की वो काली रात किसी तरह बिताये न बीत रही थी…. तथा मैं अपने उस अतीत में डूबने लगी थी… जो मेरी ज़िन्दगी में एक कड़वा सत्य बनकर उभरा… गरीबी का वो अभिशाप जो मुझे ज़िन्दगी और इंसानियत के इतने करीब खींच लाया था… तथा सचमुच ज़िन्दगी की असलियत को गहरायी से जान्ने का मौका मिला… उन दिनों हमारे परिवार पर भारी संकट पड़ा हुआ था….

>पहले तो घर की दशा ठीक थी… मगर एक हादसे ने पिताजी अपने दोनों हाथ खो बैठे… इस हालात में कबतक कोई दूसरा किसी की मदद करे… यह बात सत्य थी… पिताजी को जो थोड़ा बहुत रूपए मिले वो कितने दिन चलता… हम दो बहिन एक भाई थे तथा छोटे ही थे… गरीबी का एहसास कब हम बच्चो को भी होने लगा पता ही नहीं चला… मैं थोड़ा समझदार थी… माँ के आंसू मुझसे छुपे नहीं थे… और माँ पढ़ी लिखी भी नहीं थी… नौकरी भी क्या करती… पिता मजबूर हो गए… तथा दूसरों के मोहताज बन चुके थे… माँ को मैंने उस रात रोते देखा तो मन हुआ काश मैं कुछ कर सकती… लड़की थी क्या करती….. कहाँ जाती… “माँ”… मैंने धीरे से पुकारा… माँ ने चुपके से फटी साड़ी के आँचल से अपने आंसू पोंछे… मुँह फेरे ही बोली… तू सोई नहीं है? मैंने माँ की पीठ पर लिपट कर कहा… नींद नहीं आ रही है… माँ ने करवट ली और मुँह मेरी तरफ किया… तथा मुझे सीने में छुपाती हुई बोली… “सोजा “ नींद क्यों नहीं आ रही है तुझे .. फिर मेरे बालों में हाथ फेरने लगी… उसी बीच माँ के आंसू मेरे चेहरे पर भी टपक गए थे… एहि बात मुझे खा रही थी… मैंने सहस बांधकर धीरे से पूछ ही लिया…. माँ तू रोती क्यों रहती है… माँ मेरी बात सुनकर पहले सेहम सी गयी… फिर बोली कहाँ रोती हूँ… और रोकर ही क्या मिलेगा… और फिर मन को मजबूत करके बैठ गयी… मैंने माँ की परेशानी को बांटना चाहा… और बोली माँ ,मैं अब पढ़ना नहीं चाहती हूँ… मेरी बात सुनकर माँ ने मेरी तरफ देखा और बोली क्यों? बस युहीं मैंने कहा… अरी हाई स्कूल तो करले.. “न – नहीं”… मैंने जैसे निश्चय कर लिया था… माँ ने फिर कहा अगर आज मैं पढ़ी लिखी होती तो ये दिन न होते… मैंने कहा तू कुछ भी कह ले मैं जानती हूँ तू कल सारा दिन प्रिंसिपल के घर में काम करती रही… तब रोटी नसीब हुई… तथा सुबह क्या खिलाएगी इसकी चिंन्ता में रात भर रो रही थी… मैं कल हाई स्कूल की किताबें बेचकर तेरी कल की चिंता दूर कर दूंगी… इतने में मेरा छोटा भाई उठ गया जो बरस का था… वह हमारी बातें सुन रहा था… बोला… दीदी तू अपनी किताबें मत बेच… “मैं हु न”… कल से पड़ोस के भैया मुझे अपने साथ ले जायेंगे… वह जिस मकान को बना रहे हैं… वहीँ पर मजदूरी का काम दिला देंगे… उसकी बात सुनकर  मैं रो पड़ी और माँ की तरफ देखकर बोली…. “नहीं माँ नहीं”… अभी से इस मासूम को काम पर मत भेजना… माँ ने अपने आंसू पीते हुए कहा… ठीक है… मैं ही यह काम कर लेती हूँ…. फिर काम में क्या शर्म है… तू थोड़ा बड़ा होजा… ठीक कह रही है तेरी दीदी… माँ ने माहौल को ठीक करने के लिए कहा… जा ज़रा चाय बना ला अगर थोड़ी चीनी पड़ी हो तो… पर माँ दूध?… अरी कला पानी उबाल ला… दूध की पिए तो ज़माना बीत गया… मेरे मन में हर बात एक नया घाव बना जाती थी… चाय की बात सुनकर पिताजी जो हमारी बातें सुन रहे थे और अपनी बदकिस्मती पर चुपचाप आंसू बहा रहे थे… वह बोले बेटे एक घूँट मेरे लिए भी बना लाना… फिर वे अपने बेजान अधूरे हाथों से शायद बीड़ी का कोई अधपिया टुकड़ा ढूंढ रहे थे… इन दोनों की ऐसी हालत पर मेरा मन बार बार अपने को धिक्कार रहा था… मेरा जन्म बेकार है तथा सोचने लगी सुबह किसी से पूछूँगी किताबों के लिए अगर कोई खरीद ले तो… परन्तु बदनसीबी तो हाथ धोकर पीछे लगी थी… सुबह छोटे भाई ने जिद पकड़ ली… कि वह तो काम पर जायेगा… आटा तो था नहीं… सोचा भूखे पेट कैसे जायेगा.. इधर माँ ने भगवान के आगे १०-१० के सिक्के चढ़ा रखे थे… गिने तो ५० पैसे थे… मैंने कान पकडे और सिक्के ले लिए… साईकल पर दूध बेचने वाले से थोड़ा दूध ले लिया.. तथा सभी के लिए दूध वाली चाय बनाई… भैया ने देखा कि पिछली दोपहरी के चावल एक कटोरी में धक् के रखे थे… उसने उसमे चाय डाली तथा खाने लगा… मेरे आँखों से आंसू टप टप करके गिरने लगे… वह तो तो चला गया परन्तु मेरा मन बेचैन हो उठा… हे भगवान क्या करूँ कहाँ जाऊं… मन बुरी तरह तड़पने लगा… और आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे… इतने में माँ ने फटी साड़ी का पल्लू.. सर पर ओढ़ा और किसी गहरी सोच में डुबो सी बहार निकल गयी… जैसे जानवर भूखे बच्चों के लिए खाना लेने अनजानी राह पर निकल जाता है कि कहीं न कहीं कुछ तो मिलेगा ही… माँ चल कहाँ रही थी और सोच कहाँ रही थी… उसका चेहरा चिंता की लकीरों से भरा पड़ा था… मैं चुपचाप माँ को देखती रही… मैंने फिर देखा घर की हालत बिखरी पड़ी थी… मिट्टी का कच्चा मकान था… सोचा लीप पोत कर साफ़ कर दूँ… मकान काफी टूटा था… रहने लायक भी न था… पर मजबूरी थी… जल्दी से सफाई करके मैं पड़ोस की दूकान पर चली गयी… अपनी किताबें बेचने… उसकी कीमत मुझे सिर्फ २ रूपए मिली… डेढ़ रूपए का १ किलो आटा लिया यह सोचकर कि चलो आजके लिए तो हो ही जायेगा… और जल्दी से घर की तरफ लपकी… जल्दी से आटा मलकर रोटी बनायीं और भाई को खिलाने चलदी….उसे देखकर दिल दुखी हुआ परन्तु उसे रोटी खिलाकर मन तो शांत हुआ… फिर भी मन के किसी कोने में दर्द छुपा हुआ था… जब घर आयी तो माँ भी कुछ घरों से काम करके थोड़ा बहुत सामान ले आयी थी… माँ ने समझ लिया की मैंने किताबें बेच दी हैं… माँ ने अंदर ही अंदर आंसू पी लिए थे… मैं खुद को रोक न सकी तथा माँ से लिपट कर रो पड़ी… रोते हुए बोली… माँ भाई अभी छोटा है उसे काम पर मत भेज… माँ क्या कहती..  बस रोये बिना न रह सकी….

vo raat
vo raat

>दिन बीतते रहे… मैंने एक फैक्ट्री में पैकिंग की नौकरी कर ली थी… माँ भी इधर उधर कमाने लगी… खाने का गुज़रा चलता रहा… छोटी बहन काफी छोटी थी… हमारी फैक्ट्री में एक देव स्वरुप इंसान थे… जो हमारे बारे में सबकुछ जान गए थे… उन्होंने अपनी मर्जीसे मेरी शादी अपने बेटे से मंदिर में करवा दी… मेरी सास बीमारी के कारण चारपाई से उठ भी नहीं सकती थी… शादी से पहले ही कभी कभी मैं उनके घर जाकर उन्हें नेहला आती थी व कपडे धो आती थी… शायद इसी खूबी के कारण मैं “तर” गयी थी… भाई बहनों ने बहुत दुःख उठाये बादमे मैं उनकी कुछ मदद न कर पायी… मेरे पिताजी जो एक एक बीड़ी के टुकड़े के लिए  तरसते थे तथा भूखे बच्चों की दशा देखकर दुखी होते थे… उनका भी स्वर्गवास हो गया और म्हणत के बल पर मेरे पति का प्रमोशन हो गया… अब वह अच्छी पोजीशन पर आ गेय थे… मेरा एक बेटा था जो अब बड़ा हो गया था… तथा मैं अपनी कहानी लिखने के पीछे दीवानी थी… लिखने का शौक मगर छपवाने की दिक्कत पड़ती थी… भाई बहन भी अब अपने पैरों पर खड़े हो गए थे… अफ़सोस था कि बदकिस्मत माँ को कभी सुख नहीं मिला था… और माँ हमेशा की तरह तिल तिल जलती रही… मैं कभी उनके लिए कुछ नहीं कर सकी… शायद इस बात के लिए मैं दुखी रहती और खुद को कभी माफ़ न कर सकी… “कभी नहीं”…. फिर मेरी कहानियां छपने लगी और मैं बहुत व्यस्त रहने लगी…

>तभी अचानक नौकरानी की आवाज़ ने मुझे चौंका दिया था… सो गयी हो मेमसाहब? मैंने आँखों में भरे आंसू छुपाते हुए कहा… अरे नहीं बस युहीं होने अतीत में डूब गयी थी… मैं पती के साथ अकेली थी और बीटा नौकरी में बहार रहता था… साथ में एक नौकरानी थी… सुबह हो चुकी थी… मैं नाहा धोकर साक्षात्कार के लिए बैठ गयी थी… अब वह घड़ी आ गयी थी जिसका मुझे इंतजार था… सवाल पूछे जाने लगे व वीडियो रील बन रही थी

>मैडम आपकी इस कहानी में ज़िन्दगी की उस असलियत का विवरण है जो बिना नज़दीकी के नहीं महसूस की जा सकती…. लगता है आप समाज व उनके दुखों से इतनी गहरायी से जुड़ीं हैं… मैंने चेहरे पर थोड़ी ख़ुशी दिखाई… होठों पर मुस्कान बिखेरी तथा लम्बी गहरी सांस खींचकर बोली… “हाँ”.. आदमी अगर अमीर हो तो भी वह गरीबी का एहसास कर सकता है…. कुछ लोग गरीबी से निकलकर भी अपना समय भूल जाते हैं तथा घमंड का शिकार बन जाते हैं… या फिर मस्त व्यस्त हो जाते हैं…

>मेरी यह रचना गरीबी पर है… मैं बस केवल इतना ही कहना चाहूंगी कि  इंसान को हर स्थिति का सामना करने के लिए त्यार रहना चाहिए तथा एक मधुर सी मुस्कान होंठों पर बिखेरी और हर सवाल का जवाब देती चली गयी…. उसके बाद चाय नाश्ते की बारी थी… बातों बातों में वे बोले वास्तव में आपकी कहानी पढ़कर जीवन की एक कड़वी सचाई से सामना हुआ… तथा मैं बार बार अतीत में डूबे चली जा रही थी… जिस तजुर्बे के कारण आज मैं इस लायक बानी थी कि समाज को कुछ दे सकूँ…

” डिप्टी सेक्रेटरी – प्यारे फाउंडेशन“

लेखिका – पुष्पा थपलियाल” एक सुंदरकल्पना “

फोन न. – 
8587890152 ; 8377075517

ये कहानी पूरी तरह काल्पनिक है

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